खोज जिसने भी की वह खोज नहीं पाया,
जिसने खोज रोक दी उसको उसने खुद खोज लिया।।
अब साथ चलते हैं
साथ में ही हर पल रहते हैं
अब सब देखने वालों के लिए एक है वो,
उसके लिए न एक है न अनेक ।
बस कुछ है जो कुछ नहीं भी है।
Sapta
The One Who Let Go
He who kept seeking never found the way,
He who let the seeking go—found himself that day.
Now they walk together, step by step, breath by breath,
No distance remains, no birth, no death.
To those who look, He appears as One,
But to Him, there’s neither one nor none.
There is something—yet it is nothing too,
A silent truth beyond the grasp of view.
Sapta
खोज जिसने भी की वह खोज नहीं पाया”
- बाह्य प्रयास का संकेत: निरंतर तलाश “वस्तु” की तरह सत्य को पकड़ना चाहती है, पर सत्य वस्तु नहीं—वह देखने वाले की ही शुद्धता है।
- अहं की सूक्ष्म पकड़: खोज में ‘मैं खोज रहा हूँ’ बचा रहता है; यह सूक्ष्म अभिमान दृष्टि पर आवरण बन जाता है।
- व्यावहारिक अर्थ: अतृप्त जिज्ञासा उपयोगी है, पर अंतिम सत्य इच्छा-मूलक प्रयत्न से नहीं खुलता—वह थमे हुए मन में स्वयं दीप्त होता है।
“जिसने खोज रोक दी उसको उसने खुद खोज लिया”
- समर्पण का उलटाव: जब चाह-आसक्ति ढलक जाती है, देखने वाला अपने ही स्वरूप में टिकता है—यहीं “प्राप्ति” घटती है।
- सहज अवस्था: यह हार नहीं, विराम है—जहाँ करने का भंग होता है और होने की अनुभूति प्रकट होती है।
- सूत्र रूप में: रोक देना = ‘छोड़ देना’, पर त्याग भी शास्त्रीय; त्यागने वाले का अहं भी ढल जाता है।
“अब साथ चलते हैं / साथ में ही हर पल रहते हैं”
- एकत्व का स्नेह: साधक और साध्य का भेद गल गया। अब ‘संग’ प्रयत्न से नहीं, स्वभाव से है।
- भक्ति का माधुर्य: यह निकटता प्रेम-रस में भीन है—हर क्षण उस उपस्थिति की सहचरी है।
- जीवन-लक्षण: सामान्य कर्म भी उसी की संगति में—भेद नहीं, केवल अखंड सान्निध्य।
“अब सब देखने वालों के लिए एक है वो”
- जगत-दृष्टि में एकत्व: बहुलता में जो एक रस दिखे, वह अद्वैत का आरंभिक दर्शन है—रूप अनेक, पर सार एक।
- धर्म-संगति: नाम-रूप की विविधता में चैतन्य की एकरूचि पहचानना—यही समता-दृष्टि।
“उसके लिए न एक है न अनेक”
- दृष्टा की स्थिति: स्वयं के लिए वह संख्या-संकेतों (एक/अनेक) से परे है। संख्या संबंध ही-न-ही का खेल है; वह इससे भी ऊपर।
- अद्वय बोध: यहाँ “एक” कहना भी सीमा है; “अनेक” कहना भी। इसलिए निषेध-सिद्धि—नेति-नेति—उपनिषद का मार्गसूत्र।
“बस कुछ है जो कुछ नहीं भी है”
- पूर्ण-शून्य का संगम: शून्य नहीं, शून्यता—जो धारक है; पूर्ण नहीं, परिपूर्णता—जो सबमें व्याप्त है। दोनों विरोध नहीं, परस्पर गुंथे हुए हैं।
- परिस्फुरण: जब मन का आग्रह थमता है, वही “अनिर्वचनीय”—कहने में ‘कुछ’, जानने में ‘कहीं-भी-नहीं’—स्वयं प्रकाशित रहता है।
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